एकलव्य की गुरुभक्ति महाभारत (1.123.10-39)
आचार्य द्रोण राजकुमारों को धनुर्विद्या की विधिवत शिक्षा प्रदान
करने लगे। उन राजकुमारों में अर्जुन के अत्यन्त प्रतिभावन तथा
गुरुभक्त होनेके कारण वे द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। द्रोणाचार्य का
अपने पुत्र अश्वत्थामा पर भी विशेष अनुराग था इसलिये धनुर्विद्या
में वे भी सभी राजकुमारों में अग्रणी थे, किन्तु अर्जुन अश्वत्थामा से
भी अधिक प्रतिभावान थे। एक रात्रि को गुरु के आश्रम में जब सभी
शिष्य भोजन कर रहे थे तभी अकस्मात् हवा के झौंके से दीपक बुझ
गया। अर्जुन ने देखा अन्धकार हो जाने पर भी भोजन के कौर को
हाथ मँहु तक लेजाता है। इस घटना सेउन्हेंयह समझ में आया कि
निशाना लगाने के लिये प्रकाश से अधिक अभ्यास की आवश्यकता
है और वे रात्रि के अन्धकार में निशाना लगाने का अभ्यास करना
आरम्भ कर दिया। गुरु द्रोण उनके इस प्रकार के अभ्यास से अत्यन्त
प्रसन्न हुये। उन्होंने अर्जुन को धनुर्विद्या के साथ ही साथ गदा,
तोमर, तलवार आदि शस्त्रों के प्रयोग में निपुण कर दिया।
उन्हीं दिनों हिरण्य धनु नामक निषाद का पुत्र एकलव्य भी धनुर्विद्या
सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में आया किन्तु निम्न वर्ण
का होनेके कारण द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं
किया। निराश हो कर एकलव्य वन में चला गया। उसने द्रोणाचार्य
की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का
अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुए अल्पकाल में
ही वह धनुर्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया।
एक दिन सारे राजकुमार गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिये उसी वन
में गये जहाँ पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास
कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में
जा पहुँचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। इससे क्रोधित हो
कर एकलव्य ने उस कुत्ते को अपना बाण चला-चला कर उसके मँहु को
बाणों से से भर दिया। एकलव्य ने इस कौशल सेबाण चलाये थे कि
कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी किन्तु बाणों से बिंध जाने
के कारण उसका भौंकना बन्द हो गया।
कुत्ते के लौटनेपर जब अर्जुन ने धनुर्विद्या के उस कौशल को देखा तो
वे द्रोणाचार्य से बोले, "हे गुरुदेव! इस कुत्ते के मँहु में जिस कौशल से
बाण चलाये गये हैं उससे तो प्रतीत होता है कि यहाँ पर कोई मुझसे
भी बड़ा धनुर्धर रहता है।" अपने सभी शिष्यों को ले कर द्रोणाचार्य
एकलव्य के पास पहुँचे और पूछे, "हे वत्स! क्या ये बाण तुम्हीं ने
चलाये है?" एकलव्य के स्वीकार करने पर उन्होंने पुनः प्रश्न किया,
"तुम्हें धनुर्विद्या की शिक्षा देने वाले कौन हैं?" एकलव्य ने उत्तर
दिया, "गुरुदेव! मैंने तो आपको ही गुरु स्वीकार करके धनुर्विद्या
सीखी है।" इतना कह कर उसने द्रोणाचार्य की उनकी मूर्ति के समक्ष
ले जा कर खड़ा कर दिया।
द्रोणाचार्य नहीं चाहते थे कि कोई अर्जुन से बड़ा धनुर्धारी बन पाये। वे
एकलव्य से बोले, "यदि मैं तुम्हारा गुरु हूँ तो तुम्हें मुझको गुरुदक्षिणा
देनी होगी।" एकलव्य बोला, "गुरुदेव! गुरुदक्षिणा के रूप में आप जो
भी माँगेंगे मैं देने के लिये तैयार हूँ।" इस पर द्रोणाचार्य ने एकलव्य
से गुरुदक्षिणा के रूप में उसके दाहिने हाथ के अँगूठे की माँग की।
एकलव्य ने सहर्ष अपना अँगूठा दे दिया। इस प्रकार एकलव्य अपने
हाथ से धनुष चलाने में असमर्थ हो गया तो अपने पैरों से धनुष
चलाने का अभ्यास करना आरम्भ कर दिया।